पहाड़ों पे हो या समंदर किनारे, हर शेहर की अलग शक्सीयत होती है| बैंगलोर में ‘लेक’ अनेक हैं, तो कभी कभी ज़िन्दगी भी ठेहेरने लगती है| फुरसत के साथी हैं किताबें और फिल्में| कई दिनों से नाम सुन रहा था तो आखिर कल ‘मसान’ देख ली| इसमें बनारस से दो कहानियों को पिरोया गया है|

फ़र्ज़ कीजिये कि आप बैठे हैं और कोई कान पे पंखुड़ी छुआ दे| ऐसे ही चौकाने वाले किस्से से मसान की शुरुआत होती है| फिरते हुए उस पंख सी है मसान। एक तजुर्बे जैसी है, बदल देने का बूता है इसमें। आप किरदारों के साथ, सदमे से उभरते हैं| अब चौंकते नहीं, ढलने लगते हैं| बातें गुज़रती हैं जाने पहचाने रस्तो से| पुल, पटरी, नदिया, घाट और काशी की गलियो से बहता है भय, प्यार और इंतज़ार| किरदार दहाड़े मार कर नही रोते पर उलझन में दिखते हैं, कुछ टूटे से भी लगते हैं|

एक तरफ सीधी साधी लव स्टोरी शामिल है| जिसमे बातें बशीर बद्र की हों और निदा फ़ज़ली का ज़िक्र हो, उस लिखावट मे ऐब नही ढूँढने चाहिए| और फिर किरदार इतनी फुरसत देते ही नही। बांधे रखते हैं ध्यान| पुराने बरगद से लटकती टहनियो पर बिना सोचे झूल जाने में ही मज़ा है|


दूसरी तरफ एक लड़की है जिससे सबको दिक्कत है| वो झूझती है, लड़ती है और नज़रअंदाज़ भी कर देती है| ऐसे दौर से तो सभी गुज़रते हैं, नदी के विरुद्ध तैरना सा लगता है| कई देर हाँथ पाव चलने के बाद भी कोई फायदा नही होता| घाट पे दिन बिताने वाला उसका पिता ज्यादा नही बोलता| बोलते तो घाट भी नही हैं मगर उनकी गहरायी का अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है|


घूम फिर के गंगा जी दिख जाती हैं| नदि बहुत सिखाती है| वो सूखने की कगार पर भी हो, झूझती है, बहना नही छोडती| उसका रुख बदलता रहता है, मगर इतना धीरे की दूसरों को समझ नही आता| जैसे गंगा कानपुर, बनारस और अलाहाबाद से बहती हैं, वैसे किरदार भी शेहरो से गुज़रते हैं| फिर इसमें मायूसी वाले दृश्य भी हैं| आप सोचते हैं कि ऐसा हमारे साथ हो गया तो क्या| एक अंत जिसकी सबको खबर है मगर उम्मीद नही, वो दिखता है|


साहब, ये किसी रेल सी गुज़रती है| पुल से टकराकर गंगा में गिरे सिक्के छोड़ जाती है| बस सिक्को की जगह किस्से हैं, मानो रायते में बूंदी के दाने, एक चम्मच में सारे नही आते।