ज़रा सी थी अनबन वक़्त से मेरी
वो मेरे आगे आगे ही चला हरदम
बड़ी देर तक चला, बड़ी दूर चला
बमुश्किल मैं तुमसे दूर हो सका

ऐसी भी कमी लोगों की नहीं
बात चले कहीं से रुके तुम पे

ऐसी भी कमी लोगों की नहीं
बात जो आकर आप पे रुके
ज़रा सी थी अनबन वक़्त से मेरी
वो मेरे आगे आगे ही चला हरदम
बड़ी देर तक चला, बड़ी दूर चला
बमुश्किल मैं तुमसे दूर हो सका
ऐसी भी कमी लोगों की नहीं
बात चले कहीं से रुके तुम पे
ऐसी भी कमी लोगों की नहीं
बात जो आकर आप पे रुके
आखिर कितना वक़्त गवाता,
उलझन से कब तक मुह फिराता
चुनकर एक हज़ारों में,
मैंने कल एक कील खरीदी
“दो कौड़ी की कील है ये तो”
एक नज़र देख, दोस्त ने बोला
चाचा कितना ही चुन के लाये
एक साल न कपड़े टिक पाए
दशेहरा
रावण तो हर साल जलाते
अबके कुछ और जलाओ
दूजे धर्म के लोग जलाओ
नीच जाती के जन जलाओ
जिससे कोई बैर बचा हो
उसको चुनके आग लगाओ
बचे न कोई अलग हमसे
सबको एक सामान बनाओ
फर्क नही कर पाओगे,
तो नीति क्या बनाओगे?
भूस में आग लगाने को
चिंगारी कहाँ से लाओगे?
और जब सारे, एक से होंगे
फिर कैसे उत्पात मचेगा
भेद की आढ़ में सेंध लगे तो
खून खराबा रुक जायेगा?
चलो फिर हिसाब हो ही जाये
मुनासिब तारीख़ ढूँढ ली जाये
जो कहर हमपे बरपा है, वापस दे दो
ज़ुल्म जो धाएं हैं, उनका सौदा होगा
तारीफें अपनी, चुन चुन के लौटा दो
जो कोई छूटी, उसपे ब्याज लगेगा
निकाल के फ़ोन से, तस्वीरें दे देंगे,
पर जो लम्हे भूले जाते नही
उनके बदले क्या लीजियेगा?
याद रखिये कि ये लड़ाई बेवजह है
वजह ढूँढने का दोनों को वक़्त नही
कई फितूर तुम्हारे, मेहफूस रखे हैं
शौक से मांग लो, मगर
किसी को देने में हड़बड़ी न करना
कोई और ढूँढना पड़ेगा तुम्हारे लिए
हम सा नही, हम से भी कहीं
एक तारीख़ उसके लिए भी ढूँढो
खुद ही फीते बाँधने में जुट गया
इतना नाराज़ हो गया माँ से
फिर लट्टू लेकर घूमता रहा
कमरे से निकला
हवा से दरवाज़ा बंद हो गया
लट्टू अन्दर, बाहर डोर हाँथ में थी
बेवकूफी ने जोर लगाया तो टूट गयी
दिन ही खराब था, शायद
सुबह से डोरों से झूझ रहा था
फीते बंधे नही तो जूते में फसा लिए
दौड़ते ही निकल जाते
अब लट्टू टूट गया, बस डोर रह गयी
थोड़ी देर दरवाज़े को ताका
लॉक खोलने की कोशिश करी
फिर भगा लॉन की तरफ
मिटटी के धेले से लट्टू बनाया
नया लट्टू न पहले जैसा दिखता था
न ही घूमता
मगर टूटे तो बनाना आसान था
शाम को माँ से दोस्ती कर ली
फीते बाँधने आ गये
कमरा खुला, लट्टू जुड़ गया
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